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परीक्षा भवन,
प्रिय मुकेश,
सदा प्रसन्न रहो।
आज ही मुझे तुम्हारी कक्षाध्यापक को पत्र प्राप्त हुआ। मुझे जानकर अत्यन्त दुःख हुआ कि तुम अपना समय पढ़ाई-लिखाई में न लगाकर सिनेमा देखने में बिता रहे हो। उन्होंने लिखा है कि तुम एक सप्ताह में तीन-चार बार सिनेमा देखने जाते हो। यह अच्छी बात नहीं है। मैं तुम्हें सिनेमा देखने को मना नहीं करता, परन्तु यह शौक लाभ की जगह हानि की ओर ले जाता है। देखो, तुम अभी विद्यार्थी हो। सिनेमा मनोरंजन का एक साधन है। इसे थकाहारा व्यक्ति हाल में बैठकर कुछ देर के लिए प्रसन्न हो जाता है। समय का सदुपयोग ही सफलता की सीढ़ी है। यदि तुम अधिक चलचित्र देखते हो, तो समय के साथ-साथ धन की भी हानि करते हो। अधिकतर भारतीय चलचित्रों में काल्पनिक प्रेम कहानियों तथा डाकुओं के अत्याचार की कहानियाँ हैं। इनका दिलो-दिमाग पर अतिशीघ्र प्रभाव पड़ता है। यदि तुम्हें चलचित्र देखने का अधिक शोक है, तो मास में एक या दो। सामाजिक व ऐतिहासिक चलचित्र देख लिया करो। इससे मनोरंजन के साथ-साथ ज्ञानवर्धन भी होगा।
प्रिय भाई, यह तो एक प्रकार की मृगतृष्णा है। इसे कम करोगे, तो कम होगी और बढ़ाओगे तो बढ़ेगी। तुम्हें परीक्षा में अच्छे अंक लेकर उत्तीर्ण होना है, तो इस आदत को छोडकर पटाई में जट जाओ। आशा है, तुम अपने बड़े भाई की बातों का बुरा न मानकर अत्यंत आवश्यक होने पर ही सिनेमा देखने जाओगे तथा पढ़ाई में पूरा-पूरा समय दोगे।
माँ और पिताजी की ओर से तुम्हें आशीर्वाद ।
तुम्हारा अग्रज,
अरविन्द कुमार
दिनांक : 2 फरवरी, 1999