चोटी का किस्सा

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एक बार महाराज कृष्णदेव राय ने तेनालीराम से पूछा, “बताओ तेनाली, ब्राह्मण अधिक चतुर होते हैं या व्यापारी?”
“महाराज! इसमें कोई संदेह नहीं कि व्यापारी ब्राह्मणों से कहीं अधिक चतुर होते हैं.” तेनालीराम ने उत्तर दिया.
“ऐसा तुम कैसे कह सकते हो तेनाली?” महाराज बोले.
“महाराज! यदि आप अवसर प्रदान करें, तो जो मैं जो कह रहा हूँ, वह प्रमाणित करके भी दिखा सकता हूँ.” तेनालीराम ने आत्मविश्वास के साथ कहा.
“ठीक है! तो कल प्रमाणित करके दिखाओ.”
“जैसी महाराज की आज्ञा, किंतु मेरी एक शर्त है कि कल मैं जो कुछ भी करूं, आप उसके बीच में कुछ न कहें, न ही किसी अन्य को कोई रोड़ा डालने दें.”
महाराज ने तेनालीराम की बात मान ली.
अगले दिन दरबार लगा. समस्त दरबारी दरबार में उपस्थित थे, राजगुरु भी. अचानक तेनालीराम राजगुरु से बोला, “राजगुरु जी! मेरा आपसे एक निवेदन है. यदि आपको मेरा निवेदन बुरा लगे, तो क्षमा करें. किंतु ये अति-आवश्यक है.”

“ऐसा क्या निवेदन है तेनालीराम?” राजगुरु ने पूछा.
“महाराज को आपको चोटी चाहिए. इसलिए उनके लिए आपको अपनी चोटी का बलिदान देना होगा अर्थात् आपको अपनी चोटी कटवानी पड़ेगी.” हाथ जोड़कर तेनालीराम बोला.
ये सुनते ही राजगुरू का खून खौल उठा. क्रोध में लाल-पीला होकर वह तेनालीराम को खरी-खोटी सुनाने लगा. तब तेनालीराम उन्हें शांत करते हुए बोला, “राजगुरू जी! बदले में चाहे आप मुँह-मांगा दाम मांग ले, किंतु चोटी तो आपको कटवानी ही पड़ेगी, क्योंकि ये महाराज की आज्ञा है.”
राजगुरू समझ गया कि वह महाराज की आज्ञा के विपरीत नहीं जा सकता. फिर चोटी का क्या है? वह कुछ दिनों में पुनः उग आयेगी. वह सोचने लगा कि इसके बदले उसे कितनी स्वर्ण मुद्रायें मांगनी चाहिए.
कुछ देर सोचने के बाद वह बोला, “ठीक है, यदि ऐसा करना अति-आवशयक है, तो मैं अपनी चोटी कटवाने तैयार हूँ. किंतु चोटी के बदले मुझे पांच स्वर्ण मुद्रायें चाहिए.”
खजांची को कह ख़जाने से ५ स्वर्ण मुद्रायें निकालकर राजगुरू को दे दी गई और नाई बुलवाकर उनकी चोटी कटवा दी गई.
कुछ देर बाद नगर के सबसे बड़े व्यापारी को बुलवाया गया. तेनालीराम ने उससे भी कहा कि महाराज कृष्णदेव राय को उसकी चोटी चाहिए. इसलिए उसे अपनी चोटी कटवानी पड़ेगी.
व्यापारी बोला, “महाराज की आज्ञा मैं कैसे टाल सकता हूँ. लेकिन मैं एक बहुत गरीब आदमी हूँ.”
“अपनी चोटी के बदले तुम जो कीमत मांगोगे, वह तुम्हें दी जायेगी.” तेनालीराम बोला.
व्यापारी कहने लगा, “मैं महाराज से क्या मांग सकता हूँ? किंतु इतना कहूंगा कि इस चोटी की लाज बचाने के लिए अपनी पुत्री के विवाह में मुझे पाँच हज़ार स्वर्ण मुद्रायें देनी पड़ी थी. फिर अपने पिता की मृत्यु के समय भी इस चोटी को बचाने के लिए मुझे पाँच हज़ार स्वर्ण मुद्रायें खर्च करनी पड़ी थी…..”
“….तो ठीक है तुम्हें दस हज़ार स्वर्ण मुद्रायें…” तेनालीराम कह ही रहा था कि व्यापारी बोला पड़ा, “मेरी बात पूरी सुन लीजिये श्रीमान्.”

“श्रीमान्, आज भी बाज़ार में इस चोटी के बदले मुझे पाँच हज़ार स्वर्ण मुद्रायें आसानी से उधार मिल जायेंगी.” अपनी चोटी पर हाथ फ़िराते हुए व्यापारी बोला.
“तो इसका अर्थ है कि तुम्हें अपनी चोटी के बदले पंद्रह हज़ार स्वर्ण मुद्रायें चाहिए.” तेनालीराम ने पूछा.
“अब मैं क्या कहूं, बस महाराज की कृपा हो जाये.” व्यापारी खिसियाते हुए बोला.
तुरंत ख़जाने से पंद्रह हज़ार स्वर्ण मुद्रायें निकालकर व्यापारी को दी गई. नाई तो पहले से ही दरबार में उपस्थित था.
व्यापारी अपनी चोटी कटवाने बैठ गया. नाई भी उसकी चोटी काटने आगे आया. लेकिन जैसे ही उसने व्यापारी की चोटी काटने उस्तरा निकाला, व्यापारी तुनककर बोला, “ए नाई, ज़रा देख के, भूलना नहीं कि ये महाराज की चोटी है.”
व्यापारी के ये शब्द महाराज कृष्णदेव राय को अपमानजनक लगे. वे क्रोधित हो गए और उन्होंने सैनिकों से कहकर व्यापारी को दरबार से बाहर फिंकवा दिया.
व्यापारी के हाथ में पहले ही पंद्रह हज़ार स्वर्ण मुद्राओं की थैली थी. उसने भी वहाँ से चंपत होने में देर नहीं लगाईं.
इस पूरे घटनाक्रम के बाद तेनालीराम महाराज से बोला, “महाराज! मैंने अपनी बात सिद्ध कर दी. आपके देखा कि राजगुरू जी ने पाँच स्वर्ण मुद्राओं के बदले अपनी चोटी गंवा दी. लेकिन वो व्यापारी पंद्रह हज़ार स्वर्ण मुद्रायें भी ले गया और अपनी चोटी भी नहीं कटवाई. हुआ न व्यापारी ब्राहमण से अधिक चतुर.”
यह सुनकर महाराज सहित सारे दरबारी हंस पड़े. 
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