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एक बार विजयनगर राज्य के राजा कृष्णदेव राय के दरबार में उनके मित्र पड़ोसी राज्य के राजा का दूत संदेश लेकर आया. वह अपने साथ ढेरों उपहार भी लेकर आया, जो पड़ोसी राजा ने भिजवाये थे. दूत विजयनगर में तीन दिन तक रुका. इन तीन दिनों में विजयनगर के राजदरबारियों द्वारा उसकी आव-भगत में कोई कमी नहीं रखी गई.
वापस जाने वाले दिन जब दूत राजा कृष्णदेव राय से मिलने आया, तो उन्होंने भी अपने मित्र को देने के लिए दूत को ढेर सारे उपहार दिए. वे दूत को भी कुछ उपहार देना चाहते थे. उन्होंने उससे पूछा, “हम तुम्हें उपहार देना चाहते हैं. जो चाहे मांग लो. हीरे-जवाहरात, सोने के सिक्के, आभूषण, रत्न.”
राजा कृष्णदेव राय की बात सुनकर दूत बोला, “महाराज, आपके मेरे संबंध में विचार किया. इसलिए बहुत-बहुत धन्यवाद. किंतु मुझे ये सब नहीं चाहिए. यदि आप मुझे उपहार देना ही चाहते हैं, तो कुछ ऐसा दीजिये, जो सुख-दुःख में जीवन भर मेरे साथ रहे. जिसे कोई भी मुझसे छीन न पाए.”
दूत की मांग सुनकर राजा कृष्णदेव राय सोच में पड़ गए. उन्हें समझ नहीं आया कि आखिर दूत उपहार स्वरुप चाहता क्या है? उन्होंने इस आशा में दरबारियों की ओर दृष्टि घुमाई कि वे उन्हें इस संबंध में कुछ परामर्श दे सकें. किंतु सबके चेहरे पर परेशानी के भाव देख वे समझ गए कि उनकी स्थिति भी उनसे भिन्न नहीं है.
ऐसे अवसर पर तेनालीराम की बुद्धिमानी की कारगर सिद्ध होती है, ये सोचकर उन्होंने तेनालीराम से कहा, “तेनालीराम, हमारी आज्ञा है कि दूत के जो मांगा है, वह उपहार तुम उन्हें हमारी ओर से दो.”
“अवश्य महाराज. जब आज दोपहर जब दूत यहाँ से अपने देश के लिए प्रस्थान करेंगे, तो वह उपहार उनके साथ होगा.” तेनालीराम ने उत्तर दिया.
दूत के विदा लेने का समय आया. उसके रथ में राजा के लिए दिए गए सारे उपहार रखवा दिए गये. विदा लेने की घड़ी में दूत राजा कृष्णदेव राय से बोला, “अच्छा महाराज मुझे आज्ञा दीजिये. आपके आतिथ्य के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद. किंतु दुःख इस बात का है कि मेरा उपहार मुझे प्राप्त न हो सका.”
दूत की बात सुनकर राजा कृष्णदेव राय ने तेनालीराम की ओर देखा, तो तेनालीराम मुस्कुराते हुए बोला, “महाराज, इनका उपहार तो इनके साथ ही है.”
राजा कृष्णदेव राय, दूत सहित वहाँ उपस्थित सभी दरबारी आश्चर्य में पड़ गए, तो तेनालीराम दूत से बोला, “महाशय, आप पीछे पलटकर देखिये, आपका पुरूस्कार आपके साथ है.”
दूत ने पीछे पलटकर देखा, तो उसे कुछ दिखाई नहीं पड़ा. वह बोला, “मुझे तो कोई उपहार दिखाई नहीं पड़ रहा. कहाँ है मेरा उपहार?”
इस पर तेनालीराम बोला, “महाशय, ध्यान से देखिये. आपका उपहार आपके पीछे है और वह गई – आपका साया, जो सुख-दुःख में जीवन भर आपके साथ रहेगा और उसे कोई भी आपसे छीन नहीं पायेगा.”
यह सुनना था कि राजा कृष्णदेव राय हँस पड़े. दूत भी मुस्कुरा उठा और बोला, “महाराज, मैंने तेनालीराम की बुद्धिमानी की बहुत चर्चा सुनी थी. मैं वही आजमाना चाहता था. वाकई, तेनालीराम की चतुराई प्रशंषा योग्य है.”
इसके बाद दूत विदा लेकर वहाँ से चला गया. राजा कृष्णदेव राय ने तेनालीराम की पीठ थपथपा कर उसकी बुद्धिमानी की दाद दी.