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एक बार की बात है। राजा कृष्णदेव राय को किसी बात पर तेनालीराम पर क्रोध आ गया। वे उस पर भड़कते हुए बोले, “तेनालीराम! मैं तुम्हारा मुँह नहीं देखना चाहता। इसी क्षण यहाँ से चले जाओ और कभी अपना मुँह न दिखाना, अन्यथा सौ कोड़े लगवाऊंगा।
तेनालीराम क्या करते? अपना सा मुँह लेकर चले गए। समझ गए थे कि सब राजगुरु का किया धरा है, जिन्होंने ईर्ष्यावश किसी बात पर महाराज को भड़काया है।
अगले दिन दरबार लगा, तो तेनालीराम फिर महल पहुँच गये। उसे वहाँ देख राजगुरु महाराज के पास कक्ष में जा पहुँचे और बोले, “महाराज! देखिए तेनालीराम कि उद्दंडता। उसने आपके आदेश की अवहेलना की है।”
“क्यों क्या किया उसने?” महाराज ने चकित होकर पूछा।
“महाराज! आपने उससे कहा था कि अपना मुँह मत दिखाना, फिर भी वह दरबार में उपस्थित हो गया है।
यह सुनकर महाराज क्रोधित हो गये। उन्होंने सोच लिया कि तेनालीराम को इस उद्दंडता के दंड स्वरूप कोड़े लगवायेंगे।
कुछ देर बाद जब वे दरबार पहुँचे, तो देखा तेनालीराम अपने मुँह में मटका डालकर आया है और बड़े शान से अपने स्थान पर बैठा है। वे क्रोध में चिल्लाते हुए बोले, “तेनालीराम! सौ कोड़े के दंड के लिए तैयार हो जाओ। तुमने हमारे आदेश की अवहेलना की है।”
तेनालीराम हाथ जोड़कर अपने स्थान पर खड़ा हो गया और बोला, “किस आदेश की महाराज?”
“हमने कहा था तुमसे कि अपना मुँह न दिखाना, फिर भी तुम हमारे सामने चले आये।”
“आपके सामने आया हूँ महाराज, किंतु मैंने अपना मुँह आपको नहीं दिखाया। क्या मेरा मुँह आपको दिख रहा है? कहीं मटका फूटा हुआ तो नहीं?” कहकर तेनालीराम अपने मुँह पर ढके हुए मटके को छूकर देखने लगा।
उसकी इस हरकत पर महाराज कृष्ण देव राय को हँसी आ गई और वे बोले, “तेनालीराम तुम्हारी बुद्धिमानी का कोई तोड़ नहीं। अब ऐसे में तुमसे कैसे कोई क्रोधित रह सकता है। ये मटका मुँह से निकाल लो और अपना स्थान ग्रहण करो।”